प्रेम और वसंत

April 4, 2011


घर के सामने लगे उस पेड़ को
देखा था कुछ रोज़ पहले
सूखी निष्प्राण से शाखाओं को
जैसे जीने की कोई तलब ही  नहीं थी

हर पांत सूखी थी
काँटों से भरा था उसका बदन
और छुपी थी उसमे टूटन और
दिल को चीरती से उदास चुभन

आज सुबह ऑंखें मलते
बाहर जा कर देखा तो पाया
सूखी शाखों में कुछ नवजात पत्तियां
सुर्ख रंग की, उग आई हैं

हर वर्ष, परत दर परत
बढ़ते, फैलते, पर बूढ़े होते तने में
यौवन अब भी बाकी था
ऊष्मा अब भी बाकी थी

प्रेमी वृक्ष के सीने में
कुछ थे शायद  उमड़े आज अरमान
कि, शर्मा के प्रेयसी, पत्तियों
का हुआ ये हाल  

हर वर्ष वसंत आता है
हर वर्ष - निष्प्राण, विह्वल दिखती वनस्पति
फिर सजक हो जाती है
फिर प्रेम कर बैठती है
फिर हरी भरी  हो, लहलहा जाती है

हम मनुष्य ही क्यूँ
टूटे ह्रदय को
परत दर परत सीने में दफ़न किये जाते हैं ?
क्यूं भूल नहीं जाते किसी का मुह मोड़ लेना ?
क्यूं  माफ़ नहीं कर पाते किसी के कड़वे शब्द ?

क्यों नहीं ओढ़ लेते हरियाली की चादर ?
हरीतिमा का आंचल ?
हर वसंत....
हर वसंत....
हर वसंत....


RESTLESS

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