घर के सामने लगे उस पेड़ को
देखा था कुछ रोज़ पहले
सूखी निष्प्राण से शाखाओं को
जैसे जीने की कोई तलब ही नहीं थी
हर पांत सूखी थी
काँटों से भरा था उसका बदन
और छुपी थी उसमे टूटन और
दिल को चीरती से उदास चुभन
आज सुबह ऑंखें मलते
बाहर जा कर देखा तो पाया
सूखी शाखों में कुछ नवजात पत्तियां
सुर्ख रंग की, उग आई हैं
हर वर्ष, परत दर परत
बढ़ते, फैलते, पर बूढ़े होते तने में
यौवन अब भी बाकी था
ऊष्मा अब भी बाकी थी
प्रेमी वृक्ष के सीने में
कुछ थे शायद उमड़े आज अरमान
कि, शर्मा के प्रेयसी, पत्तियों
का हुआ ये हाल
हर वर्ष वसंत आता है
हर वर्ष - निष्प्राण, विह्वल दिखती वनस्पति
फिर सजक हो जाती है
फिर प्रेम कर बैठती है
फिर हरी भरी हो, लहलहा जाती है
हम मनुष्य ही क्यूँ
टूटे ह्रदय को
परत दर परत सीने में दफ़न किये जाते हैं ?
क्यूं भूल नहीं जाते किसी का मुह मोड़ लेना ?
क्यूं माफ़ नहीं कर पाते किसी के कड़वे शब्द ?
क्यों नहीं ओढ़ लेते हरियाली की चादर ?
हरीतिमा का आंचल ?
हर वसंत....
हर वसंत....
हर वसंत....
RESTLESS
15 comments:
I loved this one..so true :)
कविता मुझे बोहत पसंद आई| मेरी नानीजी क घर पर लगे पीपल के पेड की याद आ गयी थी| पेड तोह रहा नहीं पर यादें जुड़ी रह गयी|
शायद इसका कारण हर वसंत से पहले आने वाला पतझड़ और ग्रीष्म की करारी मार है, कुछ अंधेरों में धकेलने के लिए एक टूटे हुए ह्रदय को क्या चाहिए | हर बार भूल जाता है कि ऋतुओं का क्रम यों ही नहीं बदलता, उसी तरह जैसे हर घनेरी रात के बाद सूर्योदय होता है, आशाओं का|
Blasphemous Aesthete
Sanjana- thanks :)
Prateek :)
BA - Your words invoke so much hope dear! thanks!
RESTLESS
Restless,
I do not find suitable words to express what I feel. So I will just say it was not only the composition but the theme also is just too beautiful and true.
Take care
bahut achi kavita hai :) keep it up!!
Restless !
बहुत अच्छी कविता ,बहुत सुन्दर देखने का ढंग.
सीने में दफ़न बसंत, निकल सकता है पतझड़ से -
बशर्ते ग़म के घुन ने न खाया हो दिल की जड़ों को ,
और कुछ ठंडी छाँव ,दो बूँद पानी की मुकम्मल हों.
A great motivational poem...It reminded me these few lines..
सितम का हद से बढ़ जाना तबाही की निशानी है,
बदलते हैं सभी के दिन कहानी ये पुरानी है.
http://allboutwebsites.blogspot.com/
Jack uncle - thanks :)
Geet - :)
VArsha - thanks dear! and wow! what lines! apke kayal ho gaye!
RESTLESS
As we have not learnt the true lesson of nature-nature sheds its leaves with all that which is worthless to it. But we humen tend to stick with hurt.Cheers!
Arpana - i know... wish we could renew ourselves on every onset of spring :)
RESTLESS
I am not a great critic when it comes to deciphering poetry.. but what i could read..and understand.. this will stand among the beautiful poems that you have posted here.. i am sure.. more poems like this will hog the space here in the coming days...
...and personally, i liked the second last stanza.. the best.. this was the highlighting aspect of this poem...
Did not understand what you wrote...but I was way attracted with that bluish silhouette image! Great picture RS..
Book worm - :) thanks :)
Vaish - oh dear... ok next time, will write a gist of any hindi work i do here. hmm, the pic... yeah i like it too :) thanks :)
RESTLESS
I just wish you write some more of hindi poems. Just amazing, I can't explain. While I was going through it, Gulazaar saab was reciting it in my mind. Felt like his style, omg
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